कानपुर से शुरू हुई पत्थरबाजी सहारनपुर, रांची, देवबंद, बंगाल के कई शहरों तक पहुंची। नुपुर शर्मा के बयान पर विरोध जातने के लिए जुमे की नमाज के बाद हजारों पत्थरबाज सड़कों पर आकर पुलिस पर अंधाधुंध पत्थर फेंकते रहे। इनकी पत्थरवर्षा में ना जाने कितने पुलिस वाले और दूसरे सामान्य नागरिक घायल हुए।
ये पत्थर फेंक कर विरोध जताने का तरीका सच में भयानक है। आपको विरोध जताना है तो धरना दीजिए या अनशन कीजिए अथवा आमरण अनशन कीजिए। सरकार को मांगपत्र दीजिए। ये सब लोकतंत्र में विरोध जताने या सरकार पर दबाव डालने के रास्ते हैं। पर पत्थर फेंकना कैसे सही माना जाए? कहां से ले आते हैं उपद्दवी इतने सारे पत्थर कि वे इनकी बरसात एक-डेढ़ घंटे तक करते रहते हैं।
बहुत साफ है कि पत्थर फेंकने वाले पूरी तैयारी के बाद ही पथराव करते हैं। तैयारी से मतलब ये है कि वे हजारों पत्थर एकत्र करते हैं। उसके बाद वे किसी खास दिन अचानक से पथराव करके सबको चौंका देते हैं। जरा सोचिए कि जब किसी के सिर या शरीर के किसी अन्य अंग में पत्थर लगता होगा तो उसे किस कदर पीड़ा होती होगी। वह जख्मी तो हो ही जाता होगा। पत्थर लगने से ना जाने कितने लोगों की आंखों-कानों या शरीर के किसी अन्य सेंटचिव अंग को गंभीर चोटें आई होंगी।
अब जेएनयू बिरादरी से लेकर सोशल मीडिया पर सेक्युलरवादी सक्रिय हो चुके हैं। जेएनयू के कुछ विद्यार्थी उत्तर प्रदेश भवन के आगे नारेबाजी करते हुए नजर आए। वे योगी आदित्यनाथ तथा उत्तर प्रदेश पुलिस को कोस रहे हैं। कह रहे हैं कि योगी जी राज्य में बुलडोजर का राज ले आए हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए कहा जा रहा है कि ये मुसलमानों के साथ जुल्मो-सितम कर रही है। इनके साथ- मारपीट कर रही है।
पर इनमें से कोई भी यह नहीं कह रहा है कि पत्थरबाजी बंद होनी चाहिए। सबकी जुबानें सिल गई हैं ये कहने में कि पत्थरबाजी के कारण दर्जनों पुलिस वाले भी घायल हो गए हैं। आखिर उन पर या किसी अन्य पर पत्थर फेंकने का क्या मतलब है। क्या उन्हें चोट नहीं लगती? क्या सरकारी नौकरी करने का मतलब है कि पुलिस वालों पर कोई भी पत्थर फेंक सकता है।
सारे देश ने देखा था जब कानपुर में पथराव किया जा रहा था। पत्थरबाज नुकीले पत्थर तथा ईंटें फेंक रहे थे। जब पुलिस ने लंबी मशक्कत के बाद पथराव पर रोक लगाई तो सड़कों पर हजारों पत्थर बिखरे हुए थे। जाहिर है, इतने पत्थरों को इकट्ठा करने में काफी लोगों ने मिलकर काम किया होगा। दरअसल कानपुर के नई सड़क, चमनगंज, पेंचबाग वगैरह इलाकों में जुमा की नमाज के बाद बवाल हुआ। जिसमें लफंगे ऊंची इमारतों से पुलिस बल पर पथराव करने लगे थे। उनके पथराव में कई वाहन टूटे और सड़कें पत्थर और ईंट से पट गई। जिसे बाद में नगर-निगम कमिर्यों ने एक स्थान पर एकत्र किए थे। बाद में उन्हें हटाया जा सका था।
भारत में पत्थर फेंक कर अपना विरोध जताने का सिलसिला सबसे पहले कश्मीर घाटी से शुरू हुआ था। अपने को इस्लाम का सच्चा अनुयायी कहने वाले रमजान के पवित्र महीने में भी पत्थरबाजी करते थे। ये पुलिस तथा उनके वाहनों पर पथराव करने का कोई भी अवसर गंवाते नहीं थे। कश्मीर में कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियां भी बेशर्मी से पत्थर फेंकती थी।इनके चेहरे और सिऱ कॉलेज की यूनिफॉर्म से ढ़के हैं ताकि इन्हें कोई पकड़ ना सके। जिन्हें कॉलेजों में अपनी कक्षाओं में बैठकर लेक्चर सुनने चाहिएं, वे कन्याएं केन्द्रीय सुरक्षा बल पुलिस ( सीआरपीएफ) के वाहनों पर मोटे-मोटे पत्थर फेंकती थीं। ये सुरक्षा बलों के वाहनों पर अंधाधुंध पथराव करती हुई नजर आया करती थीं।
याद करें जब दिल्ली के जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के अवसर पर पत्थरबाजी हुई थी। पत्थरबाजी की शिकार दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच की टीम भी हुई थी। जहांगीरपुरी हिंसा मामले में एक महिला से पूछताछ करने के सिलसिले में गई क्राइम ब्रांच टीम पर पथराव किया गया था। जिसमें कई पुलिसकर्मी घायल हो गये थे। तब भी किसी ने पथराव करने वालों को आड़े हाथों नहीं लिया था।
अगर बात हाल के पत्थरबाजी के मामलों से हटकर करें तो ये मानना होगा कि हमारे समाज के एक वर्ग से खाकी वर्दी का भय खत्म सा हो चुका है। हालत यह है कि देश में रोज पुलिसकर्मियों के साथ मारपीट के मामले सामने आते रहते हैं। यानी गुंडे-मवली अब पुलिस वालों स नहीं डरते। शातिर अपराधियों को पुलिस का खौफ नहीं रहा। ये बेखौफ हो चुके हैं। ये पुलिस वालों की हत्या करने से भी परहेज नहीं करते।
ये बेहद गंभीर स्थिति है। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि गुंडा तत्व पुलिस से डरें। अगर कानून की रक्षा करने वाले पुलिस वालों पर बेखौफ पथराव होगा तो फिर क्या बचेगा। हर हालत में देश में गुंडे और मवालियों पर भारी पड़नी चाहिए पुलिस। पुलिस महकमे में राजनीतिक हस्तक्षेप बंद होना चाहिए। जो भी हो, पुलिस के सम्मान की बहाली जरूरी है। अन्यथा देश के कानून में यकीन रखने वाले नागरिक के लिए जीना दूभर हो जाएगा।
देश ने हाल के दौर में केपीएस गिल, वेद मारवाह, केपीएस गिल, वेद मारवाह, मुकंद कौशल जैसे बेहद शानदार पुलिस अफसर देख हैं। इन जैसे अफसरों ने कभी दबाव में काम नहीं किया। ये गुंडा तत्वों की कमर तोड़ देते थे। ये सदैव सही रास्ते पर चले। मुकंद कौशल दिल्ली पुलिस के फरवरी 1992 से जनवरी 1995 तक आयुक्त रहे। जब मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री थे तब वे प्रधानमंत्री सिक्युरिटी के उपायुक्त के ओहदे पर थे। उन्हें एक दिन मोरारजी देसाई के पुत्र कांति देसाई ने कहा कि मेरे से मिलने के लिए आने वाले लोगों की जांच ना की जाए। उनके सामान की भी पड़ताल ना की जाए। यह आदेश कौशल साहब को कतई मंजूर नहीं था। उन्होंने कांति देसाई से दो टूक शब्दों में कह दिया कि वे यह आदेश लिखित में दें तो कुछ देखा जाएगा। ये सुनते ही कांति देसाई ने मुस्कराते हुए कौशल साहब से कहा कि प्रधानमंत्री आवास की सुरक्षा को पहले की तरह से ही चलने दो। दिल्ली पुलिस के पुराने अफसरों को याद है कि कौशल साहब ने कभी किसी नेता-मंत्री के ‘देख लेना’ वाले फोन की परवाह नहीं की। उन्होंने सदैव कानून सम्मत काम किया। उन्होंने इस घटना की अपनी हाल ही में आई किताब SAILING ON MY OWN COMPASS: A POLICEMAN’S DIARY में विस्तार से चर्चा की है। तो कहने का भाव यह है कि सरकार ईमानदार पुलिस अफसरों और कर्मियों के साथ खड़ी रहे तो पत्थरबाज भागते नजर आएंगे। इन पथराव करने वालों को कभी भी रियायत देने की जरूरत नहीं है।
(आर.के. सिन्हा भाजपा के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से हैं। उन्हें जनसंघ से पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी ने जोड़ा था। प्रखर चिंतक और लेखक सिन्हा जी राज्य सभा सदस्य भी रहे हैं। वे सच्चे यायावर हैं। करीब 75 देशों की यात्रा कर चुके हैं। उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं। उन्होंने अपने करियर का श्रीगणेश पत्रकार के रूप में शुरू किया था। सिन्हा जी ने 1971 की भारत-पकिस्तान जंग को कवर किया था। वे सफल उद्यमी भी हैं।)