भारत के मुख्य न्यायाधीश ऐनवी रमाना ने हाल ही में दिल खुश करने वाला वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि वो सभी जो कोर्ट में न्याय माँगने आते हैं उन्हें सम्मान मिलना चाहिए। उन्हें लगना चाहिए की उनके साथ न्याय होगा।
ये सच भी है। हम सभी कोर्ट जाने से डरते हैं। साँस अटकी रहती है। ना जाने कब कौन डपट दे। न जाने हमें इंसाफ़ के बजाय दंड मिल जाए। और ना जाने ये सिलसला कब तक चले। कहीं हमारे बच्चों पे हमारे लड़ रहे मुक़दमों का बोझ ना पड़ जाए।
तो मान्यवर न्यायाधीश महोदय इस विषय में मेरे कुछ सुझाव हैं।
क्या आप इस तथ्य से भिज्ञ हैं की एंट्री पास बनवाने से लेकर, कहाँ बैठना है, कैंटीन में कौन सा कोना पकड़ना है, इन सभी विषयों पे एक लिटिगंट को क्या क्या झेलना पड़ता है?
अगर हाँ तो प्रभु कम से कम ये तो सुनिश्चित करवा दें की मुक़दमा लड़ने वाले कम से कम मुख्य गेट से एंट्री लें। ये ना हो की किसी अज्ञात दरवाज़े से उन्हें दाखिल किया जाए और उनका पूरा समय उसे खोजने में निकल जाए। ये भी ना हो को उन्हें अंदर आते वक्त कोई हीन भावना से त्रसित होना पड़े।
कोर्ट में किस तरह को वेशभूषा होनी चाहिए, ये भी एक गम्भीर चिंतन का विषय है। सूट बूट पहनना हमारे मौसम को सूट नहीं करता है। ख़ासकर तब जब आप पूरा दिन कोर्ट में बिताएँ। इनमे जिस क़िस्म के धागों का इस्तमाल होता है, जिस तरह के कपड़े लगते हैं, वो पर्यावरण के हिसाब से भी उपयुक्त नहीं है। आप उन्हें जब बार बार शुष्क सफाई के लिए देते हैं तो भी पर्यावरण की क्षति होती है। अगर हम देसी कपड़ों को बढ़ावा दें तो दिमाग़ भी साफ़, पर्यावरण भी बेहतर और एअर-कंडिशनिंग का भी बिल कम। आपको शायद मोटे पर्दे और कालीनो का भी खर्चा कम करने में मदद मिले। फिर आत्मनिर्भरता का हमें सिर्फ़ नारा ही तो ना रटना है। उस पे अमल करना भी हमारा फ़र्ज़ है।
फिर हर कोई जो मुक़दमा लड़ रहा है उसे कोर्ट में महसूस होना चाहिए की कोर्ट उनके लिए ही बने हैं। वो कोर्ट पे कोई बोझ नहीं हैं। उनका प्रवेशद्वार मुख्य गेट ना सही पर उसके आस पास ही होना चाहिए। उनके बैठने का स्थान साफ़ सुथरा और आकर्षक होना चाहिए। उन्हें लगना चाहिए की उन्हें कोर्ट में न्याय मिलेगा और ओहदे और पैसे का अभाव उनके केस की गुणता पे प्रभाव नहीं डालेगा।
एक बार जब केस ख़त्म हो जाए तो एक फ़ीड्बैक का भी सिस्टम होना चाहिए। जैसा को बाज़ार में आजकल आम है। आप पटिशनर से पूछें कि उसका अनुभव कैसा रहा। न्याय नहीं तो सुविधा के बारे में तो ये हो पाना कोई दुष्कर काम नहीं होना चाहिए। आख़िर ये भी तो मालूम चले कि भारत की न्याय प्रणाली के बारे में आम जनता क्या राय रखती है।
आख़िर में ये न्याय के भगवान, क्या हम मी लॉर्ड और माई लेडी कहना बंद कर सकते हैं? आख़िर अगर कोर्ट और न्यायधीश जनता की सेवा के लिए हैं तो फिर उनको लॉर्ड कहने का क्या औचित्य है? क्या ये सही नहीं है की अंगरेजो को भारत छोड़े हुए ७५ साल होने को आए हैं?
वीरेश मालिक देश के जाने माने स्तंभकार हैं। पूरी उमर व्यापारी जहाज़ों में निकली। रुचि हर प्रकार की रही, चाहे वो वित्त, गेमिंग, निवारक रक्षा और या मनी लॉन्ड्रिंग का मसला हो। दो बार मस्तिष्क के आघात से उबर चुके हैं। इसलिए डर से कोसों दूर निकल आए हैं।