Wednesday, April 24, 2024

राजनीति की सभी धाराओं की गंगोत्री है उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश वह विराट चुम्बक है जिसके स्पर्श के बिना भारत की राजनीति फलित नहीं होती। इस राज्य ने देश की राजनीति को विविध आयाम दिए। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी उत्तर प्रदेश ही देश की राजनीति की धुरी है।ये बात अलग है कि इन पचहत्तर सालों में उत्तर प्रदेश लगातार ‘प्रश्न प्रदेश’ बना रहा।देश का बंटवारा,उसके बाद बंटवारे की राजनीति, विखंडित होता समाज, धर्म, सम्प्रदाय की भेंट चढ़ती लोकनीति, घटता रोजगार, बिगड़ती खेती, दलित राजनीति का उफान और मंदिर-मस्जिद के सारे प्रश्न इसी प्रदेश में पैदा हुए।इतिहास जब भी निरपेक्ष भाव से राजनीति के भूगोल को पढ़ेगा, तो उसे उत्तर प्रदेश में बुनियादी बदलाव की असंख्य प्रयोगशालाएं मिलेगी। 

बीते 75 सालों में उत्तर प्रदेश ने इस देश की राजनीति को सजाया, संवारा, मांजा, बांटा और उसे नई-नई दिशा दी। देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व लाहौर कांग्रेस के ‘पूर्ण स्वराज’ के नारे के साथ जब उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो फिर कभी वापस नहीं गया।सात दशक की भारतीय राजनीति की सभी धाराओं की गंगोत्री यही राज्य है। चाहे वह जाति की गणित हो या बहुसंख्यक ताकत का आतंक, समाजवादी उछाह हो या राजनीति में परिवारों का प्रभुत्व। भारतीय राजनीति की सारी करवट उत्तर प्रदेश की छाया में है।

उत्तर प्रदेश के वर्तमान को समझने के लिए उसके अतीत से वाकिफ होना जरूरी है। देशभर में अच्छा बुरा जो कुछ हुआ उसकी जड़े आपको उत्तर प्रदेश में मिलेंगी। इसी राज्य ने मुल्क को आज़ादी दिलाई। लेकिन मुल्क के बंटवारे की मॉंग भी यहीं से उठी। मंडल के बाद सामाजिक बिखराव के बीज यहीं फूटे। धर्म और राजनीति की सबसे बड़ी प्रयोगशाला मथुरा काशी अयोध्या यहीं बनी। उत्तर प्रदेश से ही इस्लाम की दुनिया भर में मशहूर दो धाराएं जन्मी। बरेलवी और देवबंदी फिरके इसी प्रदेश की जमीन पर जन्मे और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गए।आज जिन तालिबानियों ने दुनिया को अपने सिर पर उठा रखा है। उनकी तालीमी जड़ें देवबंद में ही हैं।

स्लाम की बुन्यादी जड़े यहीं की हैं

इन फ़िरक़ों का जिक्र  इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ये उत्तर प्रदेश की जमीन की उपजाऊ तासीर के गवाह हैं। ये तासीर जितनी सियासी है, उतनी ही मजहबी भी। बरेलवी और देवबंदी तबकों का जिक्र जितना धर्म के लिए हुआ, उतना ही सियासत के लिए भी। 20वीं सदी की शुरूआत में दो धार्मिक नेताओं मौलाना अशरफ़ अली थानवी और अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की। अशरफ़ अली थानवी का संबंध दारुल-उलूम देवबंद मदरसों से था, जबकि आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी का संबंध बरेली से था। मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम ननोतवी ने 1866 में देवबंद मदरसे की बुनियाद रखी। बरेलवी फिरके की स्थापना अहमद रज़ा खान ने की।उन्होंने 1904 में मंज़र-ए-इस्लाम के साथ इस्लामी स्कूलों की भी स्थापना की। बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र है।इस उप महाद्वीप यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो पंथों से है। बरेलवी सूफ़ी इस्लाम को मानते हैं जो  मज़ारों की इबादत और चादर चढ़ाने को जायज़ मानते हैं।जबकि देवबंदी मज़ार और चादरपोशी को बुतपरस्ती के तौर पर देखते हैं।बरेलवियों पर हिन्दुस्तानी रवायतों का असर है। कब्रों, मज़ारों को पूजना भारतीय परम्परा का प्रभाव है। एक खड़े को पूजता है दूसरा पड़े को।पूजा दोनों जगह हो रही है। इबादत की पद्धति हमें इस नतीजे पर पहुंचाती हैं कि हिन्दू और भारतीय मुसलमानों दोनों का डी.एन.ए एक है।बीते 75 सालों में उत्तर प्रदेश ने इस देश की सामाजिक और राजनीतिक परिभाषाओं को नए मायने दिए। अयोध्या, काशी, मथुरा, बरेलवी, देवबंदी यह वह तत्व है जिससे देश के सामाजिक और राजनैतिक ध्रुवीकरण का ‘न्यूक्लियस’ यह राज्य बना। राजनीति के ‘पावर हाउस’ बने रहने के बावजूद उत्तर प्रदेश की बदकिस्मती देखिए कि यह राज्य सात दशक से बीमारू राज्य की सूची से बाहर नहीं आ पाया। खुद को बदलने का साहस नहीं कर पाया है जन कवि धूमिल को लिखना पड़ा – “भाषा में भदेस हूँ, इतना कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ।”

विसंगति यह रही कि इस राज्य ने बीमारी की हालत में भी देश को नौ प्रधानमंत्री दे दिए। जरा सोचिए जब यह राज्य बीमार होकर देश को नौ प्रधानमंत्री दे सकता है तो स्वस्थ्य रहता तो क्या होता? तमाम राजनैतिक दल इस राज्य की छाती पर चढ़ सत्ता में तो आते रहे। लेकिन ज्यादातर ने इसके मुस्तकबिल को बदलने की कोशिश नहीं की। विकास की दौड़ में उत्तर प्रदेश नीचे खिसकता चला गया। आज़ाद होने के बाद यह राज्य देश भर में अध्यापक, मजदूर और मंदिर के पुजारी सप्लाई करता रहा। लेकिन यहॉं के आम आदमी की औसत आमदनी गिरती गई। आज़ादी के वक्त प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत के आस पास हुआ करती थी। आज प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय, राष्ट्रीय आय से आधे से कम पर अटकी हुई है और राज्य पर क़र्ज़ बढ़ते बढ़ते इतना हो चुका है कि हर आदमी छब्बीस हज़ार छ: सौ चार रूपये के क़र्ज़ के बोझ से दबा है। नीति आयोग हर साल राज्यों का एक रिपोर्ट कार्ड तैयार करता है। इस रिपोर्ट के आधार पर वह ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’ की रैंकिंग जारी करता है। रिपोर्ट में 75 अंक पाकर केरल टॉप पर है और 60 अंक पा उत्तर प्रदेश बहुत बेहतर हालत में नहीं है। औद्योगिक विकास की दौड़ में भी यह राज्य लगातार पिछड़ता गया। खेती बदहाल हुई और बेरोज़गारी राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा बढ़ी। कोविड काल में उत्तर प्रदेश की जीडीपी,आश्चर्यजनक ढंग से  सुधरी है। 2021 की पहली तिमाही में उत्तर प्रदेश सकल घरेलू उत्पाद में देश में दूसरे नं का राज्य बन कर उभरा।

जाति और सम्प्रदाय की राजनीति

जाति और सम्प्रदाय की राजनीति के चलते उत्तर प्रदेश की राजनीति का जातीय और वर्गीय चरित्र बदला। सरकारें काम पर नहीं भावनाओं पर बनी बिगड़ी। बनती बिगड़ती सरकारों की उम्र एक दो साल ही रही।जल्दी जल्दी बदलती सरकारें एक दूसरे की शत्रु बनी और विकास इस शत्रुता की भेंट चढ़ गया। एक सरकार आयी तो पूर्ववर्ती सरकार की योजनाएँ बंद। पहली लौटी तो दूसरे वाले की बंद। इस घटिया खेल में फँस उत्तर प्रदेश का औघोगिकीकरण से भी फ़ोकस बिगड़ गया। ढाँचागत सुविधाओं पर ध्यान नहीं रहा। उत्तर प्रदेश का किसान देश में गन्ना सबसे ज़्यादा पैदा करता है। पर गन्ना किसानों को सहूलियतें महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा मिलती है। यहॉं के गन्ना किसान का भाग्य मिल मालिकों की मुट्ठी में कैद हो गया। केरल में हर पॉंच साल में सरकार बदल जाती है। पर वहॉं सरकार बदलने से विकास का एजेंडा नहीं बदलता,इसलिए केरल विकास की रफ़्तार में हमेशा अव्वल रहता है।

इस प्रदेश की तासीर हमेशा लड़ भिड़ कर अपना हक़ लेने की रही है। उत्तर प्रदेश हमेशा लड़ा, जूझा। पर उसे हासिल कुछ नहीं हुआ। यह उसकी नियति थी। बावजूद इसके वह राजनीतिक तौर पर वह कभी कमजोर भी कभी नहीं रहा। 1857 का गदर हो या आजादी का आंदोलन। आजादी की सारी मुख्य लड़ाईयां इसी प्रदेश में लड़ी गयीं। मेरठ का विद्रोह, चौरी-चौरा, काकोरी सब यहीं हुए। सबसे ज़्यादा लोग आज़ादी की लड़ाई में इसी प्रदेश से जेल गए। सिर्फ़ देश को आज़ाद कराने की रणनीति नहीं उसे बांटने के कुचक्र भी यहीं रचे गए। 1937 में देश के विभाजन की नींव लखनऊ के मुस्लिम लीग के सम्मेलन में पडी।यहीं मोहम्मद अली जिन्ना ने ‘दो राष्ट्र के सिद्धांत’ की नींव रखी।खास बात यह थी कि जिन्होंने उस वक्त पाकिस्तान मांगा, वे यहीं रह गए और जिन्होंने नहीं मांगा था, उन्हें उधर जाना पड़ा।

राजनीति की गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपा धारा भी उत्तर प्रदेश की कर्जदार है। 1952 में भारत को जो समाजवाद मिला। उसे लोहिया ने इसी प्रदेश में  गढ़ा। उन्होंने दुनिया के साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों को नकार भारत को एक नया ‘भारतीय समाजवाद’ दिया। कांग्रेस का विकल्प तलाशने की कोशिश कांग्रेस के भीतर उत्तर प्रदेश में ही हुई। आचार्य नरेंद्र देव और लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का विकल्प तलाश 1963 में इसका प्रयोग किया। तब उत्तर प्रदेश में लोकसभा के तीन उप-चुनाव होने थे। डॉ. लोहिया कन्नौज से, आचार्य जे.बी कृपलानी अमरोहा से और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर-कांग्रेसी गठजोड के  उम्मीदवार बने। इस प्रयोग ने देश में गैर-कांग्रेसवाद की शक्ल ली। इन चुनाव के नतीजों ने साबित किया कि कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल किया जा सकता है।

भारतीय जनता पार्टी के जिस विराट स्वरूप को हम आज देख रहे है। उसकी जड़ें तलाशने के लिए हमें कानपुर जाना पड़ेगा यहीं जनसंघ के पहले अधिवेशन में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने संगठन आधारित राजनीति की नींव डाली। उस वक्त डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सक्रिय राजनीति के हिमायती थे और दीनदयाल उपाध्याय संगठन बनाने के। फिर रास्ता निकला संगठन आधारित राजनीति का। इसी सम्मेलन में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि मुझे सिर्फ़ दो दीनदयाल मिल जाए तो मैं देश बदल दूँगा।

अयोध्या अब सभी दलों के राजनीति के केंद्र

ध्रुवीकरण की राजनीति ने उत्तर प्रदेश के राजनैतिक मिजाज को बदल दिया। इस बदलाव का असर पूरे देश में दिखा। जो राजनैतिक दल 30 बरस पहले ‘अयोध्या’ मुद्दे को चिमटे से भी नहीं छूना चाह रहे थे, वे सब आज अयोध्या का चक्कर लगा रहे हैं। मंदिरों के घंटे बजा रहे हैं। अयोध्या सभी दलों के राजनीति के केंद्र में आ गयी।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बेपटरी करने की वजह यही अयोध्या बनी। इन पचहत्तर सालों में कॉंग्रेस  इस मुद्दे पर गंभीर दुविधा और असमंजस में रही। वह कभी ‘शाहबानो’ तो कभी ‘अयोध्या’ के सवाल पर झूलती रही। शाहबानो मामले से हुए नुकसान की काट के लिए कॉंग्रेस अयोध्या का मुद्दा ठंडे बस्ते से निकाल लाई। ताला खुलवाया। जब लगा साम्प्रदायिक संतुलन बिगड़ा तो मंदिर की कारसेवा रुकवायी।फिर फ़ायदे की आस में शिलान्यास करवाया। फ़ौरन बाद रामराज्य के लक्ष्य के लिए राजीव गांधी ने अयोध्या से ही अपने चुनाव अभियान का श्रीगणेश किया। तब भी वे दुविधा पर सवार थे इन कारगुज़ारियों के फ़ौरन बाद उन्होंने फिर सेक्युलरिज्म ओढ़ लिया। जल्दी जल्दी पैंतरा बदलने से वे इधर के रहे, न उधर के। इस दुविधा के द्वैत ने कांग्रेस को हाशिए पर डाल दिया।

हिन्दू संगठनों की राजनीति भी इसी जमीन पर जमकर फली फूली। 6 मार्च 1983 को मुज़फ़्फ़रनगर में एक विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन हुआ। हिन्दू जागरण मंच के विजय कौशल जी महराज के द्वारा ये आयोजन किया गया। पूर्व गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा से लेकर दाऊ दयाल खन्ना तक इसमें शामिल हुए। इसी सम्मेलन में सबसे पहले रामजन्मभूमि मुक्ति का प्रस्ताव पास हुआ। संगठन बना। विश्व हिन्दू परिषद ने यह आन्दोलन हाथ में लिया और भाजपा ने 1989 के पालमपुर अधिवेशन में इसे अपने एजेंडे में शामिल किया।लोकसभा की दो सीटों से वो नब्बे सीटों पर पंहुची। उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार बन गयी। 

पिछले साढ़े सात दशकों में गंगा यमुना गोमती में बहुत पानी बहा है। सरजू न जाने कितनी बार खतरे के निशान के ऊपर गयी है। मगर देश की राजनीतिक धारा तय करने की यूपी की फितरत नही बदली है। यूपी ने ही हिंदुत्ववादी सोच को राष्ट्र के सियासत की धुरी बना रखा है। यूपी गुज़रे 75 सालों में राजनीति की दृष्टि से जितना ताकतवर रहा है, उस हिसाब से चौतरफा  विकास के मानक पर उसे देश में नम्बर 1 होना चाहिए था।मगर राजनीतिक ताकत और विकास के बीच का ये फ़ासला बहुत लंबा है।उत्तर प्रदेश की तकदीर को आज भी इस फासले के सिमटने का इंतज़ार है।

साभार: अमर उजाला

हेमंत शर्मा हिंदी पत्रकारिता में रोचकता और बौद्धिकता का अदभुत संगम है।अगर इनको पढ़ने की लत लग गयी, तो बाक़ी कई छूट जाएँगी।इनको पढ़ना हिंदीभाषियों को मिट्टी से जोड़े रखता हैं।फ़िलहाल TV9 चैनल में न्यूज़निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं।

Read More