Saturday, April 20, 2024

शरद: जब कृष्ण भी सोलह हज़ार गोपिकाओं के साथ रास रचाने पर मजबूर होते है।

शरद पूर्णिमा हमने कल रात देखी।शरद की चाँदनी व्यक्ति और प्रकृति में सबसे ज़्यादा उद्दीपन पैदा करती है।समन्दर की उद्दाम लहरें चाँद के आलिंगन के लिए आकुल रहती है।इस  रात कृष्ण भी सोलह हज़ार गोपिकाओं के साथ रास रचाने पर मजबूर होते है। 

दरअसल शरद हमारी जिजीविषा का प्रतीक है। तभी तो मौसम का राजा बसंत है लेकिन लम्बे जीवन की कामना करते हमारे पूर्वजों ने ‘सौ बसंत नहीं सौ शरद’ मांगे। पूरा वैदिक वाङ्मय सौ शरद की बात करता है। कहा है ‘जीवेत शरदः शतम’। कर्म करते हुए सौ शरद जीवित रहें। जीवन में राग, रस-रंग का प्रतीक बसंत है। पर उसके संघर्ष का प्रतीक तो शरद ही है। पूरे साल में सिर्फ एक रोज ही शरद पूर्णिमा का चांद सोलह कलाओं वाला होता है। कहते हैं चन्द्रमा से उस रोज अमृत बरसता है। इसलिए शरद अमरत्व का प्रतीक भी है। इसे ‘कोजागरी पूर्णिमा’ भी कहते  हैं। 

शरद मानसून की उत्तर कथा है। बारिश प्रकृति का स्नान पर्व है। प्रकृति और निखर जाती है। कुदरत के कैनवास पर नीला, साफ, ताजा आकाश टंगा रहता है।रात खिलती है । शरद यानी हरसिंगार, कमल और कुमुदनी के खिलने का मौसम। शरद यानी जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद का मौसम। गदलेपन से मुक्ति का प्रतीक। तुलसीदास भी शरद ऋतु पर मगन हैं ‘वर्षा विगत शरद रितु आई, देखहूं लक्ष्मण परमसुहाई’।

कालिदास शरद् को नववधु कहते है । वह मेघदूत में लिखते है, प्रिये, देखो, अपने रूप सौन्दर्य से रमणीय नववधू की तरह यह शरद आ गई फूले हुए कांस के फूल ही इसकी साड़ी है! सरोवर में खिले हुये कमल इसका सुन्दर मुख है, और हँसों की आवाजें ही इसके नुपूरों की रूनझुना है। पके हुए धान के पौधे के तरह यह गोरी है, और लचकदार शरीर वाली है। प्यारी इस ऋतु में कांस फूलो से पूरी पृथ्वी सफेद दिख रही है, रातें चन्द्र किरणों से धवल कान्ति वाली हैं, हंसों के द्वारा सरिताओं का जल उज्जवल है, सरोवर प्रफुल्ल कुमुद के फूलों से श्वेताभ दिख रहे है।सप्तच्छद के फूलों से और उपवन मालती के फूलों की सफ़ेदी  लिए हुए है। वर्षा बीत गयी है। मयूरों का नृत्य अब नहीं दिखाई पड़ता, उसकी जगह अब सावलि शोभित हो रही है। वर्षा में फूलने वाले कदम्ब, कुटज आदि तरूओं की शोभा अब क्षीण प्राय है।

‘मृच्छकटिक’ से लेकर ‘ऋतुसंहार’ तक और ‘गीत-गोविंद’ से लेकर ‘तुलसीदास’ तक शरद के लालित्य का वर्णन हर कहीं है। किसी समय शरद के अंत से वर्ष पूरा होता था। इसीलिए वर्ष को शरद से नापा जाता था। बाद में कृषि प्रधान देश में वर्षा से वर्ष शुरू होने लगा। विक्रम संवत् की शुरुआत कालांतर में चैत्र से हुई। ऋतुओं में शरद, समाजवादी ऋतु है। न उसे गर्मी के ताप से बचने के लिए एसी चाहिए न ही ठंड़ से बचने के उपकरण। मानसूनी हवाऐं जब लौटती हैं तो उत्तर पश्चिम हिस्से के तापमान में तेज़ी से गिरावट आती है। मौसम सुहावना होता है। तुलसीदास लिखते हैं- शरद के सुहावने मौसम में राजा, तपस्वी, व्यापारी, भिखारी सब हर्षित होकर नगर में विचरते हैं। किसी एक ऋतु के आवागमनचक्र में सभी देवताओं के मगन होने की स्थिति कहीं और नहीं बनती- शरद की शुरुआत सावन में शिव की आराधना। भादो में कृष्ण जन्म और गणपति उत्सव फिर आश्विन में पितरों की याद। शक्ति पूजा के साथ राम की रावण पर विजय। एक साथ सारे देवताओं की सक्रियता और प्रसन्नता हमें शरद के चक्र में ही दिखलाई पड़ती है।

बसंत और शरद दोनों सन्धि ऋतुऐं हैं। एक में सर्दियां आ रही होती है दुसरे में जा रही होती है। इसलिए दोनों का चरित्र एक सा है। बसंतशिशिर की शर्वरी से मुक्ति का अहसास है तो शरद वर्षा के गदलेपन से मुक्ति का उल्लास। शरद में चौमासे की समाप्ती होती है। साधू संत इन चौमासे के चार महीने में एक जगह रूके रहते हैं। उनकी गतिविधियां ठहरी होती है। वह शरद में फिर सक्रिय हो जाती है। बंगला की ‘कृतिवास रामायण’ के मुताबिक राम ने शरद में ही शक्ति की आराधना की थी। शास्त्रीय संगीत में भी शरद को सबसे कोमल ऋतु माना गया है। हमारे यहां हर ऋतु के अलग राग है। शरद में ‘मालकौश’ गाते हैं। पांच सुरों में गाया जाने वाला यह शास्त्रीय संगीत का सबसे कोमल राग है। महाकवि निराला ने अपनी बेटी सरोज के कैशोर्य की तुलना मालकौश से की है। “कांपा कोमलता पर सस्वर, ज्यों मालकोश नव वीणा पर”।

बसंत में बहार है मस्ती है। रंगबाजी है। रंगरेलिया हैं। उन्माद है। शरद में गाम्भीर्य है। गति है। गदंगी को धोने की ललक है। बसंत के मूल में वासना है। शरद के मूल में उपासना है। बसंत जुड़ता है रति से काम से। शरद सम्बन्धित है शक्ति से। राम से। बसंत में काम भस्म हुआ था। शरद में रावण। शरद में भगवान कृष्ण ने वृन्दावन में सोलह हजार गोपिकाओं के साथ महारास रचाया था। इस रास की खासियत थी कि हर गोपी को अहसास था कि कृष्ण उसके साथ नृत्य कर रहे हैं। इस रास में ग्वाल-बाल, देवी-देवता सब एक रस थे। और प्रकृति, मनुष्य, जड़ चेतन सब एक प्राण थे। संस्कृत के कवि भी शरद से अभिभूत हैं।शायद इसीलिए  साहित्य में उन्होंने बसंत की उपेक्षा की है। उनकी अधिकांश कविता वर्षा और शरद पर केन्द्रित है।

खगोलशास्त्र के मुताबिक़ इस रोज़ चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे नज़दीक होता है। पूरे सोलह कलाओं का चाँद। पूरे साल में इस दिन चन्द्रमा सबसे बड़ा दिखता है। उसका सौन्दर्य बड़ा मोहक, मादक और दाहक होता है। शरद पूर्णिमा यानी जागृति का उत्सव, वैभव का उत्सव, आनन्द का उत्सव, इस उत्सव से अपना तीन पीढ़ी का नाता है। 

शरद आ गया है। पर इसके परिवेश का सौंदर्य दिल्ली में उतना नहीं दिखता। जितना छोटे शहरों में होता था। यहां न पपीहे की पीहू-पीहू सुनाई देती है। न मालती की चटकी कलियां दिखती है। न कमल खिलता है न कुमुदनी दिखती है शरद की आहट से ही हरसिंगार फूलने लगते है। हरसिंगार बड़ा शर्मिला होता है। रात में चुपके से खिलता है। और खिलते ही झरने लगता है।सड़क पर हरसिंगार के लाल डंठल वाले झड़े फूलों की चादर सुबह टहलने के मेरे आनंद को दूना करती है। बसंत से जो रिश्ता बेला का है। हरसिंगार से वही रिश्ता शरद का है।

हरसिंगार के शर्मिले फूल मुनादी करते हैं कि पितृपक्ष के बाद त्यौहारों का सिलसिला शुरु हो जाएगा। क्योंकि शरद उत्सव प्रिय है। इस एक ऋतु में जितने उत्सव होते हैं। पूरे साल नहीं होते। उत्सव किसी समाज की जीवित परम्परा होते हैं। उत्सवों के जरिए हम अतीत से ताकत लेते हैं।जीवन में नए रस का संचार होता है। मुझे लगता है शरद हमारी जीजीविषा, हमारे संघर्ष और हमारी सामूहिकता का प्रतीक है। तुलसीदास द्वारा शुरु की गयी रामलीलाऐं हो या तिलक महाराज द्वारा स्थापित गणेश उत्सव या फिर दुर्गापूजा तीनों की सामूहिकता शरद की सामाजिक एकजुटता में दिखती है। ये सभी त्यौहार सामूहिकता और नई फसल के उगने से कटने तक के त्यौहार हैं। शरद पुराने को विसर्जित करने और नए को पूजने का उपक्रम है।

हेमंत शर्मा हिंदी पत्रकारिता में रोचकता और बौद्धिकता का अदभुत संगम है।अगर इनको पढ़ने की लत लग गयी, तो बाक़ी कई छूट जाएँगी।इनको पढ़ना हिंदीभाषियों को मिट्टी से जोड़े रखता हैं।फ़िलहाल TV9 चैनल में न्यूज़निर्देशक के रूप में कार्यरहैं।

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