Friday, March 29, 2024

समय ठहरता नही। अगर ठहरता है तो सिर्फ़ स्मृतियों में: उम्र ६०; फ़लसफ़ा अनंत

लेखक अपने परिवार के साथ।

संन्यस्तं मया संन्यस्तं मया संन्यस्तं मयेति

त्रिरुक्त्वाभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते-

मैने संन्यास लिया, मैंने संन्यास लिया, मैंने संन्यास लिया, आरूणेय उपनिषद के इस श्लोक के मुताबिक़ मेरे लिये यह संन्यास लेने का वक्त है क्योंकि आज मैं साठ साल का हो गया।जीवन के साठ बसंत देख लिए।अब तक सात सौ इक्कीस पूर्ण चंद्र दर्शन का मौक़ा मिल चुका है।आप कह सकते है कि सन्यास की उम्र तो पच्चहतर साल होती है। पर अपने यहॉं साठ साल में अवकाश प्राप्त करते है।हालॉंकि लोक में साठे पर पाठा का चलन भी है। 

पर इसका यह मतलब क़तई नहीं है कि मैं काम और जिम्मेदारी छोड़कर संन्यासी होने जा रहा हूँ। दरअसल हमारे यहॉं संन्यास शब्द एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो गया है। लम्बे समय से यह शब्द अकर्मण्य लोगों की निष्क्रियता, निठल्लापन, पलायन, गैरजिम्मेदार जीवन-यापन, परावलंबन, पाखंड का प्रतीक बनकर रह गया है। वास्तव में, संन्यास के सही मायने है तटस्थता, निवृत्ति, निस्संगता, निर्लिप्तता, अनासक्ति,अलगाव। इस भाव का सार्थक तथा सजग इस्तेमाल तनावमुक्त हो काम करने की प्रेरणा देता है। उद्विग्नता के ताप को शमन करने का साधन बनता है। दैनंदिनी परेशानियो को सहन करने की शक्ति देता है।

तो फिर संन्यास क्या है? संन्यास मन की स्वतंत्रता है।संन्यास का मतलब है साहस के साथ अतीत से मुक्त हो जाना और इसी क्षण में जीना। संन्यास का अर्थ है, सभी बाधाओं को पार करना। अतीत की ओर देखकर यह समझना कि वह अब नहीं है और वह व्यर्थ है, एक बोझ है।उसे हटाकर अलग रखना।यह मानना कि अब कोई कामना नहीं है।चाहे आप धन, शक्ति या प्रतिष्ठा की कामना करे या परमात्मा या मोक्ष की कामना करे। इससे कोई ज़्यादा फर्क नहीं है।

इसलिए मैं कहीं नहीं जा रहा रहा।संन्यासी का चोला पहन वैरागी नही हो रहा।अब तो और सघन निर्लिप्तता, निसंगता और अनासक्ति भाव से एक नए जीवन की शुरूआत होगी। पूरी सक्रियता और तटस्थता के साथ। इस जन्मदिन ढेर सारे मित्रों जो भावनाएँ और मंगलकामनाएँ प्रकट की हैं, उन सबका ह्रदय से आभार। आपकी मंगलकामनाओ से लगता है कि जीवन से एक साल और बीत गया। जो उम्र मिली है, वह तेज़ी से ख़त्म हो रही है। सो अब वक्त है आत्मालोचन का। विचार करने का, अब तक क्या किया….जीवन क्या ज़िया ? बकलमखुद ,सफ़र कहॉं से शुरू किया था और कहॉं पहुंचे। बता दूँ की मेरा जीवन समतल,सपाट कभी नही रहा। इसमें आपको कहीं गड्डे ,कहीं जंगल तो कहीं खण्डहर भी मिलेंगे। पिता तेजस्वी संघर्षशील, सतोगुणी सत्य साधक रचनाकार थे, जो चपरासी से लाईबेरियन होता हुआ, अध्यापक बना और मॉं इस जीवन संघर्ष में त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति। 

तो मित्रों, मैं हेमन्त शर्मा वल्द मनु शर्मा , क़द-पॉंच फुट दस इंच ,सफ़ेद बाल ,मूँछें काली क़ौम -सनातनी ब्राह्मण,पेशा -अख़बार नवीसी और अफ़साना नवीसी, साकिन -कबीर चौरा जिला बनारस, हाल मुक़ाम दिल्ली, ज़िन्दगी के साठ बरस पूरे कर रहा हूँ।आस्तिक हूँ। घरेलू संस्कारों से धार्मिक हूँ।पर पोंगा पंडित नहीं हूँ। मै आधुनिक जातिविहीन हक़ीक़त को समझने वाला सर्वसमावेशी हिन्दू हूँ। किसी धर्म-जाति से परहेज़ नहीं है।मेरा धर्म मुझे मनुष्य मात्र से बांधता है। लोगों को इक्ठ्ठा कर उत्सवधर्मिता सिखाता है और जीवन को मेल-जोल, उत्सव-आनंद के साथ जीने की प्रेरणा देता है। कुल मिलाकर यही अपनी पहचान है। 

संकोच था कि अपने बारे में क्या लिखूँ। अपने बारे में लिखना एक रोग है आजकल जिससे हर कोई बैचेन है। तो मैंने सोचा कि होली दिवाली में, मैं भी ललही छठ्ठ क्यों न लिखू ?कोरोना वायरस ने वक्त को रोक लिया है। रूके हुए वक्त में पीछे देखने को मजबूर किया है। अज्ञेय के शब्दों में, समय ठहरता नही। अगर ठहरता है तो सिर्फ़ स्मृतियों में। तो पेश है, मेरी स्मृति की मंजूषा से निकला मेरा अब तक का सफ़रनामा। 

बचपन बनारस में छूट गया।जवानी लखनऊ में बीती और अब उत्तरार्द्ध में दिल्ली वास। मैंने पहले ही कहा था कि इस जीवन में गड्डे भी है और खण्डहर भी। तो शुरूआत खण्डहर से। २७ सितंबर पितृपक्ष की तृतीया के रोज़ बनारस के दारानगर के मध्यमेश्वर के पास जिस खण्डहरनुमा घर में मैं पैदा हुआ, वह खपरैल का कच्चा घर था। दालान का दरवाज़ा गिर गया था। छत छलनी थी। मिट्टी की उबड खाबड़ फ़र्श और टूटी छप्पर। पैदा होते ही ज़बर्दस्त पानी। घन घमण्ड नभ गरजत घोरा। पानी चार घंटा बरसा और छत रात भर बरसती रही। इस बरसात ने माता की प्रसव पीड़ा को भुला दिया। मॉं और दादी मिल कर रात भर छप्पर से चूते पानी के नीचे कहीं परात तो कहीं बाल्टी रखती रही और पानी से बचाने के लिए मेरा स्थान परिवर्तन करती रही।यानी मैं बरसात का आनन्द लेते हुए पैदा हुआ।इसलिए आज भी काले बादल मुझे अपनी ओर खींचते है। 

बनारस का दारा नगर मुहल्ला दारा शिकोह के नाम पर है। दारा शिकोह जब अपने भाई औरंगजेब से बग़ावत कर संस्कृत पढ़ने बनारस आया तो इसी मुहल्लें में रहता था।मेरे जन्मस्थान से दो सौ मीटर बाएं काशी का प्रसिद्ध मृत्युजंय महादेव का मंदिर और दो सौ मीटर दाँए मध्यमेश्वर का प्राचीन मंदिर था। दो जागृत शिवलिंगों के बीच जन्म के कारण अपना नाता महामृत्युंजय से दोस्ताना रहा। जिस खण्डहर में मैं जन्मा वह किराए का था। चन्दौली के एक बाबूसाहब का। पिता के दिन अब अच्छे होने की ओर थे। वे चपरासी से लाईब्रेरियन होत हुए अध्यापक हो चुके थे। उन्हें यह मुश्किल इसलिए उठानी पड़ी कि दादा जी का कपड़ों का कारोबार था। पर आज़ादी और आर्यसमाज के आन्दोलन में सक्रिय रहने के कारण वे कभी लाहौर जेल में होते तो कभी अम्बाला में। वे समाज को समर्पित थे। सो कारोबार चौपट। पॉंच भाई बहनों का परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी पिता के अबोध और कमजोर कन्धों पर आ गयी। इसलिए आठवीं के बाद उन्होने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। दिन में  फेरी लगाते या फुटपाथ पर गमछे बेचते और रात में पढते । फिर प्राईवेट इम्तहान देते। इसलिए गमछे से अपना सांस्कृतिक परंपरागत रिश्ता है। लिखने पढ़ने में पिता जी को अपने नाना से सहयोग मिलता।वे साहित्यिक रूचि के थे। नाना के पिता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के चाकर अभिवावक थे। भारतेन्दु बाबू ने अपनी लिखने वाली एक डेस्क पिता के नाना को दी। उनसे होते हुए वो डेस्क पिता और फिर मुझ तक आते आते लगभग लकड़ियों में तब्दील हो गयी थी पर आई। यही अपनी लेखकीय विरासत थी। 

जन्म लेने के आठ महीने बाद ही हम अपने मौजूदा घर पियरी पर आ गए।इसलिए मेरी दादी और मॉं मुझे परिवार का शुभंकर मानती थी। मेरे जन्म लेने के बाद स्थितियॉ बदली।हम अपने मौजूदा घर में आ गए।राजपूताने से अहिराने में।यादवों का मुहल्ला।मैं गाय और गोबर में बड़ा हुआ। मेरे दिमाग में जो गोबर तत्व आपको मिलेगा, शायद इसी वजह से। बग़ल में औघडनाथ तकिया। जुलाहा कबीर को ब्रह्मज्ञान यहीं हुआ था। लहरतारा से कपड़ा बुनकर, जब वे बाज़ार जाते तो यहीं ठहर औघड साधुओं से ज्ञान लेते। बड़ा वैचारिक संघर्ष का माहौल था बचपन में। बग़ल में निर्गुण कबीर। घर में परम सनातनी दादी। जिनकी सुबह रोज़ गंगास्नान और महामृत्युंजय से लेकर काशी विश्वनाथ के दर्शन से होती और दादा जी परम आर्यसमाजी। वे अकबरपुर ( फैजाबाद) के आर्यसमाज के संस्थापक रहे। दादी आधे दिन अपने आराध्यों, देवो की मूर्ति के सामने होतीं और दादा जी मूर्ति पूजा के सख़्त विरोधी। एक परम मूर्तिपूजक। दूसरा मूर्तिपूजा का परम विरोधी। एक कहे ‘अंत काल रघुवरपुर जाई’ और दूसरा कहे ‘अंत काल अकबरपुर जाई ‘। घर में रोज़ सनातन धर्म के पक्ष और विपक्ष में शास्त्रार्थ होता। सोचिए एक परिवार में इतनी धार्मिक धाराएँ! यही सॉंस्कृतिक विरासत अपने मूल में है। 

घर के पड़ोस में भुल्लू यादव के स्कूल में गदहिया गोल ( तब नर्सरी का यही नाम होता था ) में मेरा दाख़िला हुआ। तो भंतो ,यादव जी के अक्षर ज्ञान से अपना शैक्षिक जीवन शुरू हुआ। यादवी संस्कार मिले। दूसरी जमात तक यहीं पढ़ा। तीसरी में आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की संस्था द्वारा संचालित हरिश्चन्द्र मॉडल स्कूल पढ़ने चला।फिर दसवीं तक यहीं था।जीवन में अराजकता, उद्दडंता,शरारत, खिलंदडापन और रंगबाज़ी ने यहीं प्रवेश किया। बाहरी दुनिया से भी सामना यही हुआ।अध्यापकों से चुहलबाजी हो या स्कूल से भागकर सिनेमा देखना हो। मेरे चरित्र के चौखटे में सारे ऐब यहीं जड़े गए ।बेफ़िक्री में पगा यह शरारती स्कूली वक्त जीवन में फिर नहीं आया। 

तीसरी-चौथी तो ठीक से बीती पर पॉंचवी तक आते आते बनारसी रंग चढ चुका था। मेरे जीवन मे अब तक कई नए और दिलचस्प किरदार दाखिल हो चुके थे। मोछू उनमे से एक थे। स्कूल के बाहर झाल मूडी बेचने वाले मोछू हमारे स्कूल में हमारे  स्थानीय अभिभावक जैसे थे। मेरे पैसे उनके पास जमा रहते थे। हर रोज़ मूडी खिलाते फिर इक्कठे एक रोज़ पैसे लेते। कभी कभी कुछ और खाना होता तो अपने पास से भी पैसा देते। मोछू दिलदार आदमी थे।

पढ़ाई में अपना सबसे निकट साथी अस्थाना था जो रुड़की से इंजीनियरिंग कर इण्डियन आयल में शीर्ष पर पहुँचा। बदमाशियो में मेरा अज़ीज़ जायसवाल था जिसने स्कूल से भाग कर सिनेमा देखना सिखाया। आनन्द मंदिर में उसके पिता मैनेजर थे। मैंने महज साढ़े सात बार शोले वहीं देखी।प्रोजेक्टर रूम में बैठ कर।शोले हाउस फ़ुल होती थी। प्रोजेक्टर रूम में एक छेद ख़ाली होता था जिसमें से इंटरवल में विज्ञापन वाली स्लाईड चलती थी। मुझे सिनेमा देखने के बदले इण्टरवल में वही स्लाईड खिसकानी होती थी। मैं वो कर देता था। 

बीए बीएचयू से किया फिर एम ए में दाख़िला जेनयू में हुआ पर एम ए किया बीएचयू से ही।वहीं से पीएचडी की और फिर उसी विश्वविद्यालय में मानद प्रोफ़ेसर बना। नौकरी लखनऊ और दिल्ली में की।पत्रकारिता की धर्मदीक्षा देने के लिए प्रभाष जी जैसा शंकराचार्य मिला।और साहित्य में मेरे गुरू श्रद्धेय नामवर सिंह हुए।मेरी कलम पर उन दोनों का ही आशीर्वाद है।इसी कलम की किसानी करते करते अब जीवन के उत्तरार्ध में प्रवेश कर गया हूँ। बस इतनी सी दास्तां है अपनी। जिंदगी ने यहां तक साथ निभा दिया है, लड़ते, झगड़ते, हिचकोले और झटके देते ही सही। साहिर लुधियानवी लिख गए हैं- “इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ,जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से।”इस जिंदगी से अब और क्या चाहिए? बस ज़िंदा नज़र आने की दुआ चाहिए। 

तो सारांश यह कि साठ का हुआ हूँ तो बस घाट के किनारे पाठ करता रहूँ ऐसा बिल्कुल नहीं है।अब अपने भौतिक दैहिक और जैविक आदतों में बदलाव की सोच रहा हूं। साठ की उम्र में काम करूँगा तीस की तरह,कपड़े पहनूँगा बीस की तरह और साठ में घुमक्कड़ी होगी आठ की तरह।सोच की परिपक्वता में जरूर साठ रहेगा। 

वसीम बरेलवी समझा गए हैं “उसूलों पर अगर आँच आए तो टकराना जरूरी है, जो ज़िंदा हो तो ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है।” सो इसी दुआ के साथ कि शेष जिंदगी भी हर लम्हा ज़िंदा नज़र आने की कामयाब कोशिशों में बीते, आप सबका बहुत बहुत आभार।आपकी दुआएँ ही मेरी ताकत हैं। जन्मदिन तो उम्र के साल कम करता जाएगा पर आपकी दुआएँ साल की उम्र बढ़ाती जाएँगी।इन्हें और भी फक्कडी के साथ जीने की वजह बनती जाएँगी।यही ज़िंदादिली मेरा हासिल है और आपको वापिस देने के लिए मेरा रिटर्न गिफ्ट भी ।

हेमंत शर्मा हिंदी पत्रकारिता में रोचकता और बौद्धिकता का अदभुत संगम है।अगर इनको पढ़ने की लत लग गयी, तो बाक़ी कई छूट जाएँगी।इनको पढ़ना हिंदीभाषियों को मिट्टी से जोड़े रखता हैं। फ़िलहाल TV9 चैनल में न्यूज़ निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं।

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