Friday, April 19, 2024

”देखो हमरी काशी” : वो बनारसी जो समूची दुनिया को ठेंगे पे रखते हैं।

(तो छप कर आ ही गयी ”देखो हमरी काशी”। ये हेमंत शर्मा की इतवारी कथा का संकलन है। संकलन ऐसा की आप में बार बार इस लेखक के बारे में जानने की उत्सुकता पैदा करें। किताब ऑन लाईन प्रभात प्रकाशन , अमेजन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है। 

तो हेमंत शर्मा के द्वारा ही उनकी अपनी रचना की समीक्षा प्रस्तुत  है। )

“देखो हमरी काशी’ सिर्फ संस्मरण नहीं है। यह एक ऐसी जीवन-यात्रा है, जिससे बनारस का शब्द-चित्र बनता है। ये किस्से मेरे नहीं हैं, बनारस के हैं। मैं तो उन्हें सुनानेवाला हूँ। ज्यादातर चरित्र उसी समाज के इर्द-गिर्द के हैं, जहाँ मैं  जनमा, पला, बढ़ा और गढ़ा गया। इन कहानियों के नायक वे लोग हैं, जो हमारे चारों ओर हैं, पर उन पर सामान्यतः किसी की नजर नहीं पड़ती। ये नितांत साधारण लोग किसी शहर के चरित्र-निर्माण में कितनी असाधारण भूमिका निभाते हैं, ये किस्से उसका प्रमाण हैं। मैंने इस किताब में अपने समय के  ‘समय’ को दर्ज किया है, इस कोशिश में एक समूचे शहर का जीवन दर्ज हो गया है। ‘देखो हमरी काशी’ काशी की अभिजन संस्कृति के बरक्स काशी का जनपक्ष है। काशी सार्वभौम नगर है और ‘देखो हमरी काशी’ बनारस की सार्वभौमिकता का रस-आख्यान है। 

यह काशी का मूल स्वरूप है, जिसकी अनदेखी नहीं हो सकती। जिस कबीर चौरा में मुझे बुद्धत्व प्राप्त हुआ, वह संगीत और नृत्य का अखाड़ा था।कबीर ने यहीं ‘अनहद वाणी’ सुनी थी। इसे आप काशी का ‘ब्रह्म‍केंद्र’ भी कह सकते हैं। इसी कबीरचौरा के जरिए आप ‘बनारसी संस्कृति’ का मस्त औ रबेलौस चेहरा देख सकते हैं। इस किताब के सारे किस्से सच्चे और अनुभूत हैं, जो आज के एकरस, अबाध, रूढ़, बोझिल समाज की जड़ता को तोड़ते हैं।बनारस एक सांस्कृतिक विमर्श है। महादेव यहाँ के मूल देवता हैं। यह धर्म की गंगोत्तरी है। इस मिट्टी में कबीर की अक्खड़ता है। तुलसी की भक्ति है। मंडन मिश्र का तर्क है। भक्ति और तर्क धर्म के दो छोर हैं, पर दोनों का संतुलन यहॉं मौजूद है। बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन भी यहीं है तो आचार्य शंकर का परकाया प्रवेश भी। यहीं रैदास की कठौती में गंगा बहती है, तो प्रसाद का सौंदर्य और धूमिल का आक्रोश भी यहीं है। साहित्य में रामचंद्र शुक्ल की पहली परंपरा यहीं है तो हजारी प्रसाद द्विवेदी की दूसरी परंपरा भी। बनारस इन्हीं सारी परंपराओं को ओढ़ता, बिछाता, ढोता हुआ, दुनिया को अपने अग्रभाग पर रख किसी  भी समस्या का समाधान देता है। मेरे सारे पात्र अख्यात हैं। पर उनकी पैनी नजर धर्म, समाज, राजनीति पर सतत रहती है। ये पात्र कबीर परंपरा के ज्ञानी हैं। सृष्टि की नश्वरता का अहसास कराते हैं। खँडहर होते अभिजात्य पर ठहाका लगाते हैं। इनसे मिलकर आपका मन भीतर तक तर होगा। संतृप्त होगा। भावार्द्र होगा।

कोई भी शहर इमारतों, सड़कों और आधुनिकता के उपकरणों से नहीं बनते। वे बनते हैं, वहाँ रहनेवाले लोगों से। वे बनते हैं इतिहास, संस्कृति, परंपरा और जीने के अंदाज से। इस किताब के हर पात्र से आपका अपनापा होगा। पढ़ते ही आपको लगेगा—अरे! यही तो हमारे जीवन में भी था! ये बनारसी  लोग ही इस शहर की संस्कृति का निर्माण करते हैं। इस किताब में आपको बनारसी चरित्र, तहजीब, बोली, भाषा, लहजा और अक्खड़ बनारसी आदतें मिलेंगी, जो जाति-धर्म से परे होंगी। पंडित ज्ञानी तो बनारसी परंपरा में केवल शास्त्र बूकते हैं। गायक-वादक परंपरा यहाँ संगीत की जड़ें ढूँढ़ती है।साहित्यकार यहाँ कबीर, तुलसी, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, शुक्ल के साहित्य में बनारस तलाशते हैं। पुरातत्त्वविद् यहाँ के मंदिरों की शृंखला से सृष्टि की प्राचीनता का पता लगाते हैं। फनकार पं. रविशंकर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, गोदई महाराज में संगीत का बीज केंद्र खोजते हैं। 

पर मैंने इन गलियों में जीवन देखा है। उसी जीवन का जिंदा वृत्तांत है—‘देखो हमरी काशी’। मैंने काशी के जिस जीवन के पात्रों को अपनी नजरों में कैद किया है, वे शायद इस आधुनिक होते शहर की अंतिम छवि होगी। कारण कि जिस’ कॉस्मोपॉलिटन’ जीवन की ओर हम बढ़ रहे हैं, वहाँ अब ऐसे पात्र संभवभी नहीं होंगे। दरअसल यह उस कालखंड की दास्ताँ है, जहाँ हमारी जीवन-शैली इतिहास के मध्य और आधुनिक दोनों के संधिकाल का दौर है। इस दौर ने अंतर्देशीय, पोस्टकार्ड के जमाने से लेकर लाइव वीडियो कॉल तक, गगरी से फ्रिज तक, रेडियो से स्मार्टफोन तक की प्रगति देखी। 

भूमंडलीकरणऔर उदारीकरण का भी यही दौर था, लेकिन इस शहर ने इस संक्रमण काल से लोहा लेते हुए अपना चरित्र नहीं छोड़ा। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष में इसने अपने ताने-बाने को नहीं बदला।


लेखक हेमंत शर्मा अपने संकलन की पहली प्रतिलिप्यों के साथ। 

लोकायत को लोक ही रचता है। लोक यानी उसके लोग। उन्हीं के जरिए किसी कालखंड के समाज, ज्ञान, आस्था, प्रतीक, भवन, व्‍यापार, पूजा, राजनीत‍ि के प्रसंगों व संदर्भों का संरक्षण होता है। मूल्यांकन होता है। यह आवश्यक है कि इस परिवेश को समझने, रचने के लिए इन्हीं में से किसी की उँगली पकड़ी जाए। इतिहास, संस्कृति और लोग ही किसी शहर की पहचान होते हैं। इत‍िहास रोचक होता है, लेक‍िन इतिहास का लेखन नहीं।शास्‍त्रीय इतिहास लेखन तो इन घटनाओं का रोजनामचा बनाकर इसके किस्‍सा कथा-तत्त्‍व की जान निकाल देता है। बीसवीं सदी में यूरोपीय शोधपूर्ण लेखन ने इतिहास को इतिहासकारों की सख्त और ऊबड़-खाबड़ मेज से उठाकर किस्‍सागोई की बैठकी में पहुँचा दिया, ताकि प्रामाणिकता के साथ-साथ विषय रसीले भी हों। इस विधा में हमें दुन‍िया की कई ऐसी चीजों का इतिहास उस तरह पढ़ने को मिला, जैसा हम जानना चाहते थे। यह‘थीमेट‍िक इतिहास’ लेखन था, जिसमें चाय से लेकर कोयले, सड़क से लेकर सड़कछाप तक और भाषा से लेकर संगीत तक सबकी अपनी दिलचस्‍प कहान‍ियाँ थीं। मैंने इसी तरह बनारस के लोक को रचा है। इसमें औपन्यासिक शिल्प तो मिलेगा, पर यह उपन्यास नहीं है।

उपन्‍यास व कहानियाँ रोचक, सक्षम और समर्थ होती हैं, लेकिन कल्‍पनाओं के मसाले के साथ। इससे वह प्रामाणिकता के स्‍वाद में मिलावट कर देती हैं। दुनिया में इतिहास केंद्रित उपन्‍यासों ने पाठकों पर बड़ी छाप छोड़ी है। वे कालजयी भी हुए हैं। उपन्‍यास में कथातत्त्‍व को साधना जरूरी होता है, इसलिए इतिहास और कल्‍पना के नीबू-पानी में चीनी-नमक को अलग करना कठिन होता है।

भारतेंदु ने इसी काशी को देखते, समझते, ढूँढ़ते डेढ़ सौ साल पहले लिखा था ‘देखी तुमरी कासी’। उनके नाटक ‘प्रेमयोगिनी’ की इस कविता में उसवक्त के बनारस का चित्र और समाज था। उसी के बरक्स यह किताब है ‘देखो हमरी काशी’, जिसमें काशी का जनपक्ष है। भारतेंदु ने डेढ़ सौ साल पहले काशी के समाज की विसंगतियों, विडंबनाओं, विकृतियों और मानवीय मूल्यों के पतन का यथार्थ चित्रण किया। उनके मन में तब की काशी को लेकर कोई क्लेश या टीस दिखती है। ‘प्रेमयोगिनी’ नाटक में इस कविता के जरिए काशीवासियों की अकर्मण्यता, आलस्य, कायरता, फूट, बैर, मानसिक गुलामी आदि का चित्रण उन्होंने यथार्थ के धरातल पर किया है। भारतेंदु लिखते हैं—

देखी तुमरी कासी, लोगो, देखी तुमरी कासी।

जहाँ विराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वरी अविनासी॥

आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी।

आधी कासी रंडी मुंडी राँड़ खानगी खासी॥

लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।

महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी॥

उस वक्त की काशी पर भारतेंदु ने अपनी बात बड़ी बेबाकी और अक्खड़ता से कही। यह बनारसी मिजाज का आदमी ही लिख सकता है। ऐसी ही अक्खड़ता और बेबाकी कबीर में भी थी। असल में यह बेबाकी काशी का चरित्र है। यह बेबाकी उसी के अंदर प्रविष्ट हो सकती है, जो पूरी तरह काशी को जीने लगता है।

‘देखी तुमरी कासी’ भारतेंदु की काशी थी। उसके एक पक्ष को संदर्भित करती हुई। ‘देखो हमरी काशी’ में उसका दूसरा पक्ष भी मिलेगा। तब से अबत क गंगा में बहुत पानी बह गया है। इस काशी में प्रेम है। सौहार्द है। सहज अपनापा है। खिलंदड़ापन है। वह जात-पाँत और मजहब से ऊपर है।अस्पृश्यता की कोई जगह नहीं है। यहाँ बनारसी जीवन के सारे पात्र अपनी विलक्षणताओं के साथ हैं। वर्ण व्यवस्था को अँगूठा दिखाता यह समाज काशी के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा था, है और रहेगा। किताब के पात्र वही लोग हैं, जिनसे हमारा रोज का नाता है। यह इस वक्त की बनारसी चेतना है, जो भारतेंदु से मेल तो खाती है, पर भाषा और कथ्य के लिहाज से सीधी, मारक और आसानी से कम्युनिकेट करती है। मेरे चरित्र भाषा के लिहाज से नपुंसक नहीं हैं। सारे पात्र गजब के संवादी हैं। कोई लाग-लपेट नहीं। सहज बोलते-बतियाते हैं। वे जबरन अभिजात्यता या संपन्नता की चादर नही ओढ़े रहते। जिसकी भाषा में भाव और आवेग नहीं तो समझिए वह बनारसी चरित्र नहीं।

किसी भी समाज के नाना विषय बोध वहाँ मौजूद दृश्यों, पात्रों, सांस्कृतिक रूढ़ियों और रूपों से होते हैं। मुख्यधारा के क्रियाकलाप पर सबकी नजर होती है। लेकिन हाशिए पर रहनेवाले लोगों की तरफ ध्यान कम जाता है।उनका कई बार जिक्र भी नहीं होता। मैंने अपनी समकालीन जमीन से जुड़ी एक पूरी संस्कृति के नायकों को सामने लाने की कोशिश की है। इनके बिना जीवन के कई सुनहरे पृष्ठों का निर्माण संभव नहीं था।

‘देखो हमरी काशी’ अभिजात्य, प्रभु वर्ग और पांडित्य परंपरावाली काशी नहीं है। मेरी काशी यहाँ के लोक, गलियों और गालियों में बिखरी पड़ी है।इस शहर की विभूतियाँ, सांस्कृतिक केंद्र और राजनेता कथा के नेपथ्य में हैं। कथा के नायक हैं, हर किसी के जीवन के रंगमंच पर आनेवाले नाई, धोबी, दर्जी, बुनकर, बढ़ई, पानवाला, दूधवाला, मिठाईवाला, चायवाला, सफाईवाला, मल्लाह, तवायफ, बैंडमास्टर और अंत में जीवन को तारनेवाला महाश्मशान का डोम, जिनके बारे में अब तक ज्यादा लिखा नहीं गया। इसमें बढ़ई को छोड़कर सारे पात्र काशी के हैं। कुछ पात्र जीवन-यात्रा में साधारण हैं, पर इनका व्यक्तित्व असाधारण है। किसी भी शहर का मिजाज, आदतें, जीवन, भाषा, तहजीब वहाँ के आमजन बनाते हैं। इस लिहाज से ‘देखो हमरी काशी’ बनारसी संस्कृति और मिजाज का आईना है। जिसने बनारस को नहीं देखा है, वे इस किताब को पढ़कर बनारसीपन महसूस कर सकते हैं और जिन्होंने देखा है, वे पूछ सकते हैं, अरे! कहाँ गई वह काशी?

‘संस्मरण’ और ‘रेखाचित्र’ व्यक्ति केंद्रित होते हैं। पर ‘देखो हमरी काशी’ अपने पात्रों के जरिए उस वक्त के परिवेश और समाज पर केंद्रित है। यह उस कालखंड का परिदृश्य रचती है। इतवारी कथा के इन पात्रों का स्वाभिमान और विपन्नता शहर के ओढ़े हुए गौरव की संपन्नता को अपने ठेंगे पर रखती है। यह शहर शिव का है। शिव आमजन के देवता हैं। जिसके पास कुछ नहीं है, सिर्फ एक लोटा जल और भस्म है, वह शिव का भक्त है। मनुष्य की न्यूनतम जरूरतें उसे अक्खड़ बनाती हैं, क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। इसी अक्खड़ता को आप शिव और उनके भक्त काशीवासियों में देख सकते हैं।

हर इतवार मैंने इन कथाओं को लिखा, इसलिए इन्हें ‘इतवारी कथा’ कहा।आप इन्हें रेखाचित्र भी नहीं कह सकते। उपन्यास, इतिहास के बाद रेखा चित्र तीसरा बेहद महत्त्‍वपूर्ण आयाम है, लेक‍िन यहाँ मामला जरा और पेचीदा है।यहाँ संस्‍मरण, स्‍केच, कथा और इतिहास एक साथ आते हैं। रेखाचित्रों का अपना एक लोक है, वह विधा व्‍यक्‍तियों पर केंद्रित होती है। पर‍िवेश सिर्फ संदर्भ के लिए आता है, पर इन कथाओं में परिवेश पूरी प्रामाणिकता के साथ है।

काशी की तंग गलियों का मुकाबला दिल्ली और मुंबई की चौड़ी चमकदार सड़कें नहीं कर सकतीं। इस शहर में जिस आत्मीयता की चस्प और चपक है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। पूरी दुनिया घूमने के बाद मेरी यही धारणा है।काशी छोड़ना सिर्फ शहर छोड़ना नहीं, संस्कृति छोड़ना होता है। अपनी जड़ों से कटना होता है। 1987 को एक सुबह लखनऊ जानेवाली रेलगाड़ी पर बैठ मैंने बनारस छोड़ दिया। पर वह छूटा कभी नहीं। बुरी आदत-सा चिपका रहा।ज्ञान, खुशबू, खयाल, ख्वाब, आदत बनकर भीतर गहरे बैठा रहा। गाहे-बगाहे व्यक्त होता रहा, क्योंकि बनारस का संबंध जन्म से नहीं है। डूब जाने से है।जो यहाँ डूब गया, बनारसी हो गया। यह जन्म-जन्म साथ रहता है। इस शहर का सम्मोहन जीवन भर कचोटता रहता है और मौका मिलते ही फूटता है।

कोरोना और लॉकडाउन हमारे जीवन का अवसादी युग था। इस अवसाद से निकलने के लिए मैंने टाइम मशीन को उल्टा घुमाया तो फिर हर हफ्ते एक कथा निकली। ये कथाएँ स्वत: प्रसूत होती रहीं। फेसबुक का एक बड़ा पाठक वर्ग इसमें जुड़ता रहा। पाठकों के स्नेह और आग्रह से कथाएँ एक से इक्कीस होती गईं। पाठकों को ये पात्र अपने-से लगने लगे। हम हर हफ्ते उनके अमरत्व का उत्सव मनाने लगे। लॉकडाउन की हताशा और अवसाद की अवस्‍था में इन कथाओं से जीवन में उम्मीद की किरण फूटी। मित्रों ने इनमें जीवन देखा। पाठक इसका हिस्सा बन गए और इतवारी कथा किताब बनगई। इन कथाओं में आपको साहित्य की सारी विधाएँ एक चबूतरे पर बैठी नजर आएँगी।

यह किताब भाषा और कथ्य के लिहाज से बालिग लोगों के लिए है। कमर में गमछा, कंधे पर लँगोट और बदन में जनेऊ डाले इसके पात्र आपकी हर समस्या का समाधान देते नजर आएँगे। जब एथेंस के बारे में कोई सोच नहीं थी, मिस्र की कल्पना नहीं थी, रोम का अस्तित्व नहीं था, तब भी काशी थी।यह रहने की जगह नहीं, सीखने का विश्वविद्यालय है। आइंस्टीन ने कभी कहा था, “पश्चिमी साइंस भारतीय गणित के बिना चल नहीं सकती।” यही गणितकाशी का बीजतत्त्व है। ढेर सारे गणितज्ञ आपको यहाँ गलियों, नुक्कड़ों पर मिलेंगे। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, नानक, तुलसी, रविदास, वल्लभाचार्य, कीनाराम, रामानंद, मध्वाचार्य, निंबार्काचार्य, तैलंगस्वामी, रामकृष्ण, विवेकानंद, सबकी आँखें यहीं आकर खुलीं। इसी काशी ने रामबोला को तुलसी बनाया। तुलसीदास ने अपनी चौपाइयों में भी इसे रचा और जिया।

लोक-बेदहूँ बिदित बारानसी की बड़ाई

बासी नर नारि ईस-अंबिका-सरूप है।

कालबध कोतवाल, दंडकारि दंडपानि,

सभसद गनप-से अमित अनूप हैं॥

तहाऊँ कुचालि कलिकाल की कुरीति,

कैंधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।

फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल-पल

खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं।”

तुलसी लोक के कवि थे। यही लोक काशी का प्राणतत्त्व है। हमने कोशिश की एक ऐसी लेखन विधा या फ़ॉर्मैट बनाने की, जिसमें इस लोक की ध्‍वन‍ि, इतिहास की प्रामाणिकता, गझिन किस्‍सागोई और मुखर समकालिनता को एक साथ पिरोया जा सके। ‘देखो हमरी काशी’ में सबका संगम है। ये संस्‍मरण ठोस इतिहास हैं, रसीले किस्‍से हैं, अचूक शब्‍दच‍ित्र हैं और समकालीन परिवेश हैं।

यह एक नई विधा की रचना है, जहाँ आप बनारस के एक पानवाले का रसीला संस्‍मरण पढ़ते हुए पान की अक्खी दुनिया की यात्रा कर वापस बनारस आ सकते हैं या एक नाई के रोचक संस्‍मरण से ‘हेयर कट’ की दुनिया के दिलचस्‍प इतिहास में पहुँच जाते हैं।

लोक, लेखकीय आख्‍यानों में आते रहे हैं। इतिहास उन्‍हें सँजोता है।कथाकार भी उन्‍हें सजाता है। इतिहास बड़े-बड़ों की कहानी है और कथाओं में कल्‍पना के तत्त्‍व तथ्‍य से क्रीड़ा करते हैं। विश्‍व साह‍ित्‍य में लगातार यह प्रयास हुआ है कि किसी शहर, कालखंड या घटना को उसके प्रधान पात्रों के बजाय अनाम पात्रों के जर‍िए देखा जाए। ऐसे लोगों के जरिए इतिहास पढ़ा जाए, जिनका जिक्र किसी इतिहास में नहीं मिलता, जैसे क‌ि किसी शहर का हलवाई या दूधवाला या फिर मोची…। इन चरित्रों को मैंने गढ़ा नहीं है। इन पर सिर्फ रोशनी डाली है।

‘देखो हमरी काशी’ काशी का बनारसी लोक है। यह उस काशी की गायत्री यात्रा है, जिसे केवल बनारसी ही कर सकते हैं। संस्कृति, आस्था, ज्ञान के इस केंद्र को मेरे ‘सड़कछाप बनारसी’ झिंझोड़ते और झकझोरते हैं।इन्हीं के बीच मेरा भी ‘मसि कागद’ से सामना हुआ और मैंने आखर धर्म को आत्मसात किया। इस धर्म की विशेषता इसे सहेजने में नहीं, बल्कि बिखेरने और बाँटने में यकीन रखती है, सो जो लिखा, रचा, वह सब आपका। तो तेरा तुझको  अर्पण।

किताब उन “बनारसियो को समर्पित है जो समूची दुनिया को अपने ठेंगे पर रखते हैं।”

(हेमंत शर्मा हिंदी पत्रकारिता में रोचकता और बौद्धिकता का अदभुत संगम है।अगरनको पढ़ने की लत लग गयी तो बाक़ी कई छूट जाएँगी।इनको पढ़ना हिंदीभाषियों को मिट्टी से जोड़े रखता हैं।फ़िलहाल TV9 चैनल में न्यूज़निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं।)

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