Tuesday, April 30, 2024

हिंदी दिवस का क्या मनाना जब उसके रचयिताओं की घर में ही पूछ नहीं है। 

भीष्म साहनी

(हिंदी दिवस ता: १४ सितम्बर को मनाया गया। इस अवसर पर एक  धारदार लेख)

अप्रतिम कथाकार भीष्म साहनी देश के बंटवारे के बाद रावलपिंडी से दिल्ली आए तो फिर जीवनभर ईस्ट पटेल नगर में ही रहे। भीष्म साहनी ने विभाजन की त्रासदी को अपने उपन्यास ‘तमस’ और कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ में जीवंत कर दिया है। उन्होंने दशकों दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाया भी। पर हिन्दी समाज ने अपने इतने सशक्त कथाकार के नाम पर एक सड़क, स्कूल या पार्क का नाम नहीं रखा। हिन्दी पट्टी अपने लेखकों, कवियों, अध्यापकों आदि को लेकर बेहद ठंडा रवैया रखती है। यह उसकी मिसाल है।

 निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ होती हैं। हिन्दी कहानी में आधुनिक-बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का अग्रणी स्थान है। उन्होंने कम लिखा है परंतु जितना लिखा है उतने से ही वे बहुत ख्याति पाने में सफल हुए हैं। वे अपने अंतिम वर्षो में आई.पी. एक्सटेशन की सहविकास सोसयटी में रहे। क्या उनकी सोसायटी के आगे की सड़क का नाम निर्मल वर्मा रोड नहीं रखा जा सकता था? पर किसी ने पहल नहीं की।

निर्मल वर्मा 

 राजेन्द्र यादव मयूर विहार में

राजेन्द्र यादव हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया। हंस का पुनर्प्रकाशन उन्होंने प्रेमचन्द की जयन्ती के दिन प्रारम्भ किया था। इसके प्रकाशन का दायित्व उन्होंने स्वयं लिया और अपने मरते दम तक निभाया। वे लंबे समय तक मयूर विहार में रहे और उनका दफ्तर दरियागंज रहा। कहीं भी राजेन्द्र जी के नाम पर कोई सड़क या स्कूल का नाम रखा जा सकता है। पर जिस शहर में सिर्फ नेता ही सब कुछ समझे जाएं वहां पर कलम के सिपाहियों को कौन पूछेगा। 


राजेन्द्र यादव

लेखक, अध्यापक और एक्टिविस्ट डॉ.महीप सिंह दशकों वेस्ट दिल्ली के शिवाजी एनक्लेव में रहे। उनके नाम पर भी कभी किसी ने सड़क का नाम रखने की मांग नहीं की। इसी तरह से दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) में लंबे समय तक हिन्दी पढ़ाते रहे डॉ. नगेन्द्र और प्रो. मन्नू भंडारी के नाम पर किसी सड़क का नाम रखने के बारे में क्या कोई सोचेगा? महाभोज’ की अमर कथाशिल्पी मन्नू भंडारी का पिछले साल निधन हो गया था। डॉ. नगेन्द्र ने डीयू के हिन्दी विभाग को स्थापित किया।

देवकीनंदन पांडे मार्ग हो किदवई नगर में

हिन्दी पट्टी के हरेक परिवार के लिए बेहद जाना-पहचान नाम रहा देवकीनंदन पांडे जी का। एक दौर था जब माता-पिता अपने बच्चों को कहा करते थे कि वे देवकीनंदन पांडे की बुलंद आवाज में सुनाए जा रहे समाचारों को सुनें ताकि वे शब्दों का शुद्ध उच्चारण सीख सकें। वे दशकों किदवई नगर में रहे। उनके नाम पर शायद ही कभी किसी ने पार्क, स्कूल, बाजार का नाम रखने के बारे में विचार किया हो। पांडे जी किदवई नगर के बाद लक्ष्मीबाई नगर और अंत में आईपी एक्सटेंशन में भी रहे। पर उनके जीवन का लंबा हिस्सा किदवई नगर में ही गुजरा। 


देवकीनंदन पांडे

 इस बीच, पूर्वी दिल्ली में आधुनिक हिन्दी के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर एक सड़क का नाम भारतेंदु हरिश्चंद्र मार्ग है।  यदि इधर भारतेन्दू जी की एक छोटी सी प्रतिमा या अर्द्ध प्रतिमा भी स्थापित हो जाए तो हिन्दी गद्य से लेकर कविता, नाटक और पत्रकारिता को समृद्ध करने वाली विभूति के साथ सही तरह से न्याय हो जाएगा।

आपको पत्रकारों की पाश कॉलोनी गुलमोहर पार्क में गोपाल प्रसाद व्यास मार्ग और व्यास वाटिका मिलते हैं। लेखक,पत्रकार और कवि व्यास जी ने लाल किले से स्वाधीनता दिवस पर होने वाले कवि सम्मेलन का 1951 में श्रीगणेश करवाया था। उनका दैनिक व्यंग्य कॉलम ‘यत्र,तत्र,सर्वत्र’ बेहद लोकप्रिय था। उन्हीं के ही प्रयासों से राजधानी में विष्णु दिगंबर मार्ग पर  हिन्दी भवन की स्थापना हुई। हिन्दी भवन में हिन्दी के विकास और विस्तार को लेकर निरंतर गतिविधियां जारी रहती हैं। यहां पर दिल्ली के बाहर से आने वाले हिन्दी के लेखकों के ठहरने की भी शानदार व्यवस्था है।

उधर, दिल्ली में हिन्दी के नाम पर एक पार्क का होना सच में सुखद है। दरियागंज में हिन्दी पार्क गुजरे 50 वर्षों से आबाद है। इस पार्क को हिन्दी पार्क का नाम दिलवाने का श्रेय़ दरियागंज या कहें कि दिल्ली-6 के कद्दावर कांग्रेसी नेता ब्रज मोहन शर्मा को जाता है। वे एक दौर में दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। वे हिन्दी प्रेमी थे। हालांकि हिन्दी पार्क की कभी पहचान कवि सम्मेलनों या अन्य गोष्ठियों को आयोजित करने वाले स्थान के रूप में नहीं हुई है।

 वैसे दरियागंज में हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार व निबंधकार लेखक जैनेंद्र कुमार लंबे समय तक रहे हैं। अब तो दरियागंज में हिन्दी के बहुत से प्रसिद्ध प्रकाशकों के दफ्तर भी हैँ। इसलिए हिन्दी पार्क के आसपास लेखकों का आना-जाना लगा रहता है।

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